राष्ट्रीय प्रस्तावना न्यूज़ नेटवर्क 

हरदोई : ग्राम नेवलिया विकास खण्ड सुरसा में शिव कृपा सेवा समिति के तत्वधान में आयोजित हो रही श्री रामकथा के षष्ठम दिवस कथाव्यास राधे गोविंदाचार्य महाराज ने भरत चरित्र का प्रसंग सुनाते हुए बताया कि जब भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला था तब भरत अपने छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ कैकेय राज्य में थे। उन्हें समाचार मिला था कि उनके नाना अश्वपति का स्वास्थ्य आजकल ख़राब चल रहा है इसलिये वे उनका हाल चाल जानने वहां चले गए । पीछे से उनकी माँ कैकेयी ने अपनी दासी मंथरा की चालों में आकर भगवान श्रीराम को 14 वर्षों का वनवास दिलवा दिया व भरत को अयोध्या का राजा नियुक्त करवा दिया। राम वियोग में भरत के पिता राजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग दिए थे । भरत अभी तक सभी बात से अनभिज्ञ थे जब अयोध्या आकर उन्हें पता चला कि उनके पीछे महल में किस प्रकार के षड़यंत्र रचे गये जिस कारण उनके प्रिय भाई को 14 वर्षों का वनवास मिला व पिता की मृत्यु हो गयी। भरत ने पिता के शव का दाह संस्कार किया व उन्हें मुखाग्नि दी।भरत ने केवल श्री राम जी को राजा माना व स्वयं को उनका दास बताया। यह सूचना उन्होंने अपने सभी मंत्रियों, गुरुओं तक भी पहुंचा दी इसके बाद उन्होंने इस षड़यंत्र के लिए उत्तरदायी अपनी माँ कैकेयी का त्याग कर दिया व उन्हें माँ मानने से मना कर दिया।  शत्रुघ्न मंथरा को भरी सभा में घसीटकर लेकर आये व उसकी हत्या करने लगे किंतु भरत ने उन्हें स्त्री हत्या करने से रोका व कहा कि यह भगवान श्रीराम के आदर्शों के विरुद्ध है। इसलिये उन्होंने मंथरा को एक कमरे में बंद कर दिया व भगवान राम के लौटने पर उसका दंड निर्धारित करने का निर्णय लिया। भरत  ने वन पहुंचकर भगवान श्रीराम से क्षमा मांगी व उन्हें वापस अयोध्या चलने को कहा किंतु भगवान श्रीराम ने अपना पिता को दिये वचन के अनुसार वापस चलने से मना कर दिया। इसलिये भरत केवल उनकी चरण पादुका लेकर वापस लौट आये।

14 वर्षों तक भरत ने अयोध्या का राज सिंहासन तो संभाला लेकिन श्रीराम की तरह वनवासी रहते हुए। उन्होंने अपना सब राजसी सुख त्याग दिया व अयोध्या के समीप नंदीग्राम वन में एक कुटिया बनाकर रहने लगे

क्योंकि भगवान श्रीराम वन में भूमि पर सोते थे इसलिये भरत ने भूमि पर एक फीट का गड्डा किया व भगवान श्रीराम से नीचे सोना चुना। उनका स्थान भगवान श्रीराम से नीचे था । भरत ने श्री राम जी से वचन लिया यदि वे 14 वर्ष समाप्त होने के पश्चात एक दिन की भी देरी करेंगे तो वे अपना आत्म दाह कर लेंगे।

जब प्रभु श्रीराम 14 वर्षों के पश्चात पुनः अयोध्या लौटे तो भरत ने उन्हें वैसी ही अयोध्या लौटाई जिस प्रकार वे छोड़कर गए थे। इस प्रकार भरत ने अपने भाई का संपूर्ण कर्तव्य निभाया व धर्म की स्थापना में अपना अमूल्य योगदान दिया। कथा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने शबरी प्रसंग को सुनाया। शबरी वर्षों से प्रभु राम की प्रतीक्षा में आश्रम में जीवन को व्यतीत किया। श्रीराम शबरी की भक्ति से प्रभावित होकर शबरी के जूठे बेर खाकर सामाजिक समरसता का संदेश दिया। भक्ति ही थी कि भीलनी जाति की होने के बावजूद श्रीराम ने शबरी के जूठे बेर खाए और उसे नवधा भक्ति का उपदेश दिया।इसके अलावा सीता हरण, जटायु मोक्ष व हनुमान मिलन प्रसंग को भाव विहोर होकर सुनाया। जिस पर सभी श्रोता भाव विभोर हो गए। कथा व्यास ने कथा में जटायु प्रसंग की व्याख्या करते हुए कहा कि जो दूसरे की सेवा करता है उसकी चिंता स्वयं भगवान करते हैं। प्रभु राम ने जटायु को स्वयं अपने सीने से लगा कर उनकी सेवा की। भगवान के स्पर्श से ही जटायु को परमधाम मिला वे चतुर्भुज रूप में सीधे भगवत धाम गए। उन्होंने कहा कि जो भक्ति भगवान को छोड़ कर चमत्कार और भौतिकता की ओर अग्रसर होता है उसे जीवन में बड़े कष्ट उठाने पड़ते हैं। उसे भगवत प्राप्ति के लिए भटकना पड़ता है। मां सीता जब भगवान की भक्ति से विरक्त होकर स्वर्ण मृग की ओर आकर्षित हुई तो उन्हें भगवान से विमुख होना पड़ा और उनका हरण भी हो गया। श्रीराम को भटकना पड़ा अर्थात भगवान बताना चाहते हैं कि यह शरीर एक जन्म का है। आत्मा तो वहीं रहती है। इसलिए अपने आत्मा को परमात्मा से सदैव जोड़कर रखना चाहिए।  कथा में व्यास जी ने स्वर्ण मृग की घटना का बड़े ही रोचक ढंग से वर्णन करते हुए कहा कि जब भक्ति भगवान से विमुख होकर केवल भौतिक साधनों की ओर आकर्षित होती है। तो उसे भगवान प्राप्ति के लिए भटकना पड़ता है। जटायु के प्रसंग सुनाते हुए कथा व्यास जी ने कहा कि जो दूसरों की सेवा में लगा रहता है उसकी चिंता स्वयं भगवान करते हैं। जैसे शबरी की भक्ति ही थी कि श्रीराम यह जानते हुए कि वह भीलनी जात की है। इसके बावजूद भी उसके झूठे बेरों को खाकर सामाजिक समरसता का संदेश दिया। भगवान की साधना में जातिपाती का भेदभाव नहीं होता है। वहीं उन्होंने कहा कि सुग्रीव से मिलना व बाली वध के प्रसंग के माध्यम से समाज को संदेश दिया। कि अधर्म कितना भी मजबूत हो अंत में उसे पराजित होना ही पड़ता है और अधर्म पर धर्म की विजय अवश्य होती है। व्यास जी ने कहा कि भाई हो तो लक्ष्मण जैसा। जब भगवान श्री राम बनवास को जा रहे थे तब लक्ष्मण ने अपनी माता से कहा कि मैं भी वनवास जाना चाहता हूं। तो मां ने कहा कि मैंने तो सिर्फ तुम को जन्म दिया है लेकिन असली माता पिता तो राम और सीता ही हैं। लक्ष्मण भाई श्री राम के प्रति समर्पित थे इसलिए व्यास जी ने कहा कि भाई हो तो लक्ष्मण जैसा।

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