
राष्ट्रीय प्रस्तावना न्यूज़ । जम्मू–कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार ने एक बड़ा कदम उठाते हुए 215 ऐसे स्कूलों की प्रबंधन समितियों को अपने नियंत्रण में लेने का आदेश जारी किया, जिन्हें प्रतिबंधित संगठन जमात-ए-इस्लामी (JeI) और उसकी सहयोगी संस्था फलाह-ए-आम ट्रस्ट (FAT) से जुड़ा पाया गया। खुफिया एजेंसियों ने स्पष्ट किया था कि इन स्कूलों की प्रबंधन समितियों की वैधता समाप्त हो चुकी है और इन पर नकारात्मक रिपोर्ट भी आई है। राज्य सरकार का तर्क था कि छात्रों के शैक्षणिक भविष्य को बचाने और शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए यह कदम उठाना ज़रूरी है।लेकिन आदेश जारी होते ही राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया। विपक्षी पार्टियों ने इसे “राजनीतिक अतिरेक” और “ग़ुलामी” की संज्ञा दी। सज्जाद लोन ने तो यहां तक कहा कि सरकार लगातार ऐसे कदमों की साझीदार रही है जो कश्मीरियों पर थोपे जाते हैं। वहीं, पीडीपी की ओर से इल्तिजा मुफ़्ती ने इसे नेशनल कॉन्फ्रेंस की पुरानी नीति करार दिया, जो हमेशा से जमात-ए-इस्लामी को निशाने पर लेती आई है।विवाद गहराने पर शिक्षा मंत्री साक़िना इट्टू ने बयान जारी कर विभागीय आदेश से खुद को अलग दिखाने की कोशिश की। उन्होंने कहा कि सरकार ने स्कूल “टेकओवर” नहीं किए हैं, बल्कि केवल तीन महीने तक अंतरिम रूप से देखा-रेखी की व्यवस्था की है जब तक नई प्रबंधन समितियाँ CID से सत्यापित नहीं हो जातीं। उनका कहना था कि न स्टाफ बदला है, न भवन और न ही छात्रों पर कोई असर पड़ेगा। यह “टेकओवर” नहीं बल्कि एक अस्थायी प्रबंध है।लेकिन यह सफ़ाई सरकारी आदेश के स्वर और शिक्षा विभाग के सचिव द्वारा जारी नोटिफिकेशन से मेल नहीं खाती। इससे यह आभास हुआ कि सरकार दबाव में आकर अपने ही निर्णय से पीछे हट रही है। यहां अहम सवाल उठता है कि क्या स्थानीय राजनीतिक दलों की आलोचना और संभावित वोट-बैंक दबाव ने सरकार को अपने फैसले से पीछे हटने पर मजबूर कर दिया? यदि खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट में इन स्कूलों को प्रतिबंधित संगठन से जोड़ा गया है, तो फिर उस पर कठोर कदम उठाने में हिचक क्यों है?उधर, भाजपा ने सरकार के मूल आदेश का समर्थन किया और कहा कि इससे 50 हज़ार से अधिक छात्रों को अलगाववादी विचारधारा से बचाया जा सकेगा। वहीं, पार्टी ने शिक्षा मंत्री के “हिचकिचाने” पर भी सवाल उठाए। यह दोहरा रुख स्पष्ट करता है कि राज्य सरकार राजनीतिक रूप से संतुलन साधने में उलझी है, एक ओर आतंकवाद-विरोधी नीति का दबाव है, दूसरी ओर स्थानीय असंतोष को भड़कने से रोकने की चिंता है।यह स्थिति साफ़ करती है कि जम्मू–कश्मीर सरकार अभी भी राजनीतिक दबाव और सुरक्षा आवश्यकताओं के बीच संतुलन बनाने में असहज है। आतंकवाद और अलगाववाद के संदर्भ में देखा जाए तो किसी भी तरह की “पलटी” यह संदेश दे सकती है कि सरकार ठोस फैसले लेने से पीछे हट जाती है। इससे न केवल सुरक्षा एजेंसियों के मनोबल पर असर पड़ सकता है, बल्कि कट्टरपंथी तत्वों को भी यह संकेत मिल सकता है कि वे दबाव बनाकर नीतियों को प्रभावित कर सकते हैं।हम आपको बता दें कि जमात-ए-इस्लामी पर 2019 से प्रतिबंध है और यह संगठन सीधे-सीधे अलगाववादी विचारधारा से जुड़ा हुआ है। ऐसे में उससे संबद्ध स्कूलों पर निगरानी और सुधार का कदम तार्किक ही है। लेकिन जिस तरह राज्य सरकार ने पहले कठोर आदेश दिया और फिर राजनीतिक दबाव के बीच नरम पड़ती दिखी, वह उसकी नीतिगत स्पष्टता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। यह घटनाक्रम दर्शाता है कि जम्मू–कश्मीर की राजनीति में अब भी “कठोरता और लचीलापन” का असंतुलित मिश्रण मौजूद है। यही वह जगह है जहाँ सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या राज्य सरकार स्थानीय राजनीतिक दबाव के आगे झुककर आतंकवाद और अलगाववाद को अप्रत्यक्ष रूप से ताक़त नहीं दे रही?