राष्ट्रीय प्रस्तावना न्यूज़ नेटवर्क

बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन (राजद-कांग्रेस-वाम दल) की अप्रत्याशित दुर्गति ने राजनीतिक विश्लेषकों को हैरान कर दिया है। 1989 से चले आ रहे लालू प्रसाद यादव के युग के समापन की ओर बढ़ते संकेत इस परिणाम में साफ दिख रहे हैं। साथ ही, परिवारवादी राजनीति की सीमाएं भी उजागर हुईं। विशेषज्ञों का मानना है कि यदि अगली पीढ़ी पार्टी की नीतियों को समयानुकूल नहीं बदलती और वोट बैंक का विस्तार नहीं करती, तो ऐसे परिणाम सामने आते हैं। तमिलनाडु के एम.के. स्टालिन और झारखंड के हेमंत सोरेन जैसे उदाहरण अपवाद हैं, लेकिन लालू के दोनों पुत्र तेजस्वी और तेज प्रताप में न तो पिता जैसी फुर्ती दिखी, न ही वोट बैंक विस्तार की रुचि। यही कारण रहा बिहार में RJD कोई खास कमाल नहीं कर सका। तो आइए आपकों बताते हैं बिहार चुनाव में तेजस्वी-राहुल की जोड़ी कहां चूक गई।

हवा-हवाई वादों पर जनता ने नहीं किया भरोसा
तेजस्वी यादव ने सरकारी नौकरियां, पेंशन और सामाजिक सुरक्षा जैसे बड़े वादे किए, लेकिन फंडिंग मॉडल और ठोस समय-सीमा नहीं बता सके। ‘करोड़ों नौकरियां’ और ‘तेजस्वी प्रण’ जैसे नारे शुरुआती उत्साह तो पैदा करते रहे, लेकिन ब्लूप्रिंट की कमी से विश्वसनीयता डगमगा गई। एनडीए ने इन्हें अवास्तविक बताकर माहौल बनाया और इसमें सफल रहा।

सीट बंटवारे में देरी, एकजुटता की कमी
राजद, कांग्रेस और वाम दलों के बीच शुरू से ही अविश्वास दिखा। सीट शेयरिंग में मतभेद, देरी से घोषणा और संयुक्त कैंपेन की कमी ने जमीनी स्तर पर गठबंधन को कमजोर किया। पोस्टर से लेकर जनसभाओं तक तालमेल न दिखना वोट बिखराव का प्रमुख कारण बना।

जंगलराज और मुस्लिम तुष्टिकरण का नैरेटिव पड़ा भारी
महागठबंधन का मुस्लिम बहुल सीटों पर फोकस और कुछ बयान भाजपा को संवेदनशील मुद्दे थमा गए। एनडीए ने जंगलराज, कानून-व्यवस्था और मुस्लिमपरस्ती को आक्रामक ढंग से उठाया। कई क्षेत्रों में यादव वोट भी खिसक गए। राजद उम्मीदवारों के उग्र ‘कट्टा’ बयान ने पुरानी छवि को फिर से जीवित कर दिया।

छठ पर राहुल गांधी की टिप्पणी बनी आत्मघाती
बिहार की आस्था का सबसे बड़ा पर्व छठ पूजा के ठीक बाद 29 अक्टूबर को मुजफ्फरपुर रैली में राहुल गांधी का बयान महागठबंधन के लिए घातक साबित हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोलते हुए उन्होंने कहा, “मोदी का छठ से कोई लेना-देना नहीं, वे वोट के लिए मंच पर डांस-ड्रामा भी कर सकते हैं।”

एनडीए ने इसे “बिहार और छठ दोनों का अपमान” बताकर जोरदार प्रचार किया। भाजपा ने राहुल के “हिंदू विरोधी रवैये” का आरोप लगाया और हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण में इसका भरपूर इस्तेमाल किया। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सार्वजनिक चेतावनी दी कि “राहुल को इसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी।”

मुश्किलें यहीं नहीं रुकीं। तेजस्वी के बड़े भाई तेज प्रताप यादव ने भी राहुल पर तंज कसते हुए कहा, “राहुल को छठ का ज्ञान ही नहीं, वे विदेश घूमते रहते हैं।” जब गठबंधन को एकजुट संदेश देना चाहिए था, तब आपसी बयानबाजी ने वोट बैंक को असहज कर दिया। छठ विवाद महागठबंधन के लिए सबसे बड़ा नकारात्मक कारक साबित हुआ।

एनडीए की एकजुटता, मोदी फैक्टर और नीतीश पर भरोसा
एनडीए ने संगठित चेहरा दिखाया। प्रधानमंत्री मोदी की रैलियां निर्णायक रहीं। भाजपा नेतृत्व ने स्पष्ट किया कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे, जिससे मतदाताओं को स्थिरता का भरोसा मिला। बूथ मैनेजमेंट में भी एनडीए आगे रहा। कुल मिलाकर, बिहार की जनता ने अनुभव, स्थिरता और भरोसे को तरजीह दी। एनडीए की प्रचंड जीत महागठबंधन की रणनीतिक भूलों का भी परिणाम है। यह चुनाव साफ संदेश देता है कि बिहार में नेतृत्व, गठबंधन की विश्वसनीयता और संदेश प्रबंधन उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना वादे और प्रचार।

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